07/07/2012 की सुर्खियाँ
· कालीकट विश्वविद्यालय, केरल के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो.अच्युतन के व्याख्यान की समापन किस्त
· भारतीय चलचित्र और साहित्य पर उस्मानिया विश्वविद्यालय के थियेटर आर्ट्स विंग के अध्यक्ष प्रो.प्रदीप कुमार का व्याख्यान .
पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का तीसरा दिन.
क्लास 10.30 बजे शुरू होती है लेकिन प्रो.अच्युतन 10 बजे ही क्लास में पहुँच गए. खाली कुर्सियों को देखकर पूछने लगे क्या आज क्लास नहीं है. तब मैंने उनसे कहा कि क्लास 10.30 बजे से है तो वे वेटिंग रूम में बैठ गए. इतने में मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो.टी.वी.कट्टीमनी भी वहाँ आए और दोनों क्लास रूम में हमारे साथ बैठ गए. जब मैंने अपनी पहली पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ प्रो.अच्युतन जी को भेंट की तो उन्होंने कहा ‘वाह ! तेलुगु साहित्य पर किताब. इसे अवश्य पढ़ना चाहिए.’ तब मैंने मन ही मन मेरे गुरु को प्रणाम किया.
धीरे धीरे सभी प्रतिभागी भी आ गए. क्लास निर्धारित समय पर शुरू हुई. भोजन के पहले दोनों सत्र प्रो.अच्युतन के. पहले सत्र का विषय - प्रयोगधर्मी नाटक; और दूसरे सत्र का - अभिनय.
प्रो.अच्युतन के व्याख्यान का सार संक्षेप
एक तरह से ये दोनों सत्र पिछले दिन के व्याख्यान के पूरक हैं. उन्होंने कहा कि “नाटक में प्रयोग और परंपरा दोनों साथ साथ चलते हैं. कुछ भी करना हो पहले परंपरा को जानना अनिवार्य है वरना हम कुछ भी नहीं कर सकते. यह सिर्फ नाटक पर ही लागू नहीं होता. हिंदी नाटक में परंपरा और प्रयोग का महत्व निर्विवाद है. प्रयोगकर्म एक तरह से गतिशील प्रक्रिया है. आज का समय संक्रमण का समय है. पूरे वैश्विक स्तर पर यह संक्रमण दिखाई पडता है. हर समय परिवर्तन लक्षित है चूंकि परिवर्तन अपने आपमें एक गतिशील प्रक्रिया है. भारतीय साहित्य, दर्शन, कला आदि संबंधी हमारे ग्राफ पर एक नज़र डाली जाए तो यह स्पष्ट होता है कि यह ग्राफ नीचे से ऊपर की ओर जा रहा है. हर स्तर पर प्रयोग की आवश्यकता है. अगर प्रयोग नहीं होगा तो निर्माण स्थगित हो जाएगा.
पारसी अपने साथ शेक्सपीरियन थियेटर, विक्टोरियन थियेटर आदि लेकर भारत आए. बर्तोल्त ब्रेष्ट ने जनवादी एप्रोच को सामने रखा. उन्होंने लोक को महत्व दिया. उनकी मान्यता थी कि दर्शक/ लोक से सीधे संवाद करना जरूरी है प्रयोगधर्मी कलाकार को.
प्रयोगधर्मिता के बारे में स्पष्ट करते हुए जियामी ने कहा, ‘नाट्य का प्रयोजन सिर्फ विरेचन में नहीं है बल्कि उसका प्रयोजन नैसर्गिक सौंदर्य में होता है. जब दर्शक इस नैसर्गिक सौंदर्य का आस्वादन करते हैं तब सही अर्थ में वह नाटक प्रयोगधर्मी है और अभिनेता प्रयोगकर्मी.’ इसकेलिए यह आवश्यक है कि अभिनेता का अंतस भाव से निर्लिप्त हो. शरीर और मन का एकीकरण. तभी एक ऐसा अभिनय अभिनेता प्रस्तुत कर सकता है जिसमें उत्सवधर्मिता, शैलीबद्धता और सौंदर्यपरक प्रस्तुति हो. परिवेश और समय के अनुरूप नाटकों में भी परिवर्तन लाना जरूरी है.
पारसी अपने साथ शेक्सपीरियन थियेटर, विक्टोरियन थियेटर आदि लेकर भारत आए. बर्तोल्त ब्रेष्ट ने जनवादी एप्रोच को सामने रखा. उन्होंने लोक को महत्व दिया. उनकी मान्यता थी कि दर्शक/ लोक से सीधे संवाद करना जरूरी है प्रयोगधर्मी कलाकार को.
प्रयोगधर्मिता के बारे में स्पष्ट करते हुए जियामी ने कहा, ‘नाट्य का प्रयोजन सिर्फ विरेचन में नहीं है बल्कि उसका प्रयोजन नैसर्गिक सौंदर्य में होता है. जब दर्शक इस नैसर्गिक सौंदर्य का आस्वादन करते हैं तब सही अर्थ में वह नाटक प्रयोगधर्मी है और अभिनेता प्रयोगकर्मी.’ इसकेलिए यह आवश्यक है कि अभिनेता का अंतस भाव से निर्लिप्त हो. शरीर और मन का एकीकरण. तभी एक ऐसा अभिनय अभिनेता प्रस्तुत कर सकता है जिसमें उत्सवधर्मिता, शैलीबद्धता और सौंदर्यपरक प्रस्तुति हो. परिवेश और समय के अनुरूप नाटकों में भी परिवर्तन लाना जरूरी है.
टी.एस.इलियट ने भी कला की सामाजिक उपयोगिता को व्याख्यायित करते हुए कहा कि मनुष्य अपने आप में अकेला है. अर्थात उसमें एक तरह से साइलेंस है. इसलिए वह आतंरिक अभिव्यक्ति के लिए भाषा का चयन करता है. अतः यह कहा जा सकता है कि एक्टिंग इस एन इन्बोर्न टेलेंट. अभिनय करते समय अभिनेता का अंग प्रत्यंग जीवंत रूप से बोलना चाहिए. दर्शकों से बतियाना चाहिए. जब तक कलाकार संस्कृत शास्त्र/ नाट्यशास्त्र में निहित अवधारणा से पूरी तरह परिचित नहीं होगा और उसको आत्मसात नहीं करेगा तब तक वह न तो किसी तरह का प्रयोग कर सकता है और न ही उसके अंग प्रत्यंग ही बोल सकते हैं. कहने का आशय है कि नाट्यशास्त्र ही आदर्श है रंगकर्मी के लिए. इसी को ‘अनुकीर्तन’ भी कहा जाता है. इसके अभाव में रागात्मक स्थिति पैदा नहीं हो सकती. हबीब तनवीर ने भी नाट्यशास्त्र को ग्रहण करके उसे लोक के अनुरूप ढाला और नित नए प्रगोग करते रहे. उनकी मान्यता है कि किसी भी कलाकार को पहले कला परंपरा को समझना अनिवार्य है. इतना ही नहीं जरूरत पड़ने पर उसे (परंपरा को) तोड़ना भी चाहिए. भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र के अंतिम चरणों में यह स्पष्ट किया है कि उन्होंने बहुत ही विस्तार से सब कुछ कह दिया है जो सामान्य जन भी समझ सकते हैं, पर यदि कुछ छूट गया हो तो विवेकी रंगकर्मी को लोक के दरवाजे पर जाना होगा.
नाटक का मूलाधार अभिनय है. अभिनय का मूलाधार शरीर है. एक जीवंत शरीर. हर वक्त मनुष्य कॉसमिक ऊर्जा से इंटरेक्ट करता है और उसे स्वूर्जा (सेल्फ इनर्जी) में परिवर्तित करता है. इसे ही स्वप्रकृति भी कहा जाता है. इसके माध्यम से अभिनेता अपने हाव भावों से स्वयं भी दूसरे स्तर पर पहुँच जाता है और दर्शको को भी पहुंचता है. अभिनय के लिए कलाकार का शरीर लचीला (फ्लेक्सिबल) तथा सुविधाजनक (कमफर्टबल) होना चाहिए. सृजनात्मकता के लिए कलाकार का आजाद होना अनिवार्य है. इसके साथ साथ उसमें आत्मविश्वास का अभाव नहीं होना चाहिए. अभिनय के मुख्य रूप से चार अंग हैं – आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक. इन चारों तरह के अभिनयों में शरीर का हर अंग/ अंश बोलता है. चाहे शारीरिक अंग हो, या शब्द/ ध्वनि हो. या साज-सज्जा, वेश-भूषा हो या फिर हाव-भाव. पोस्चर्स ऑफ द बॉडी डेपिक्ट्स द कैरेक्टर. इनर्जी मैनेजमेंट को सीखना जरूरी है. ओब्ज़रवेशन, डायलोग रेंडरिंग तथा एक्सप्रेशन ऑफ इमोशन्स सबसे महत्वपूर्ण अंश हैं.
प्रो.अच्युतन ने अभिनय को समझाने के लिए खुद अभिनेता बनकर नव रसों का अभिनय किया.
प्रो.प्रदीप कुमार के व्याख्यान का सार संक्षेप
भोजनोपरांत का सत्र . वैसे भी भरपूर भोजन के बाद नींद आना स्वाभाविक ही है. तो हम चार पांच लोग (मेरे साथ साथ डॉ.स्नेहलता शर्मा, ममता, पूनम, वरप्रसाद, पार्थसारथी) नींद को भगाने और माइंड को फ्रेश करने के लिए हँसी-मजाक कर रहे थे चूंकि पहले सत्र में गंभीर विषय के बारे में चर्चा-परिचर्चा संपन्न हुई थी. हम भंगिमाएं बना ही रहे थे कि प्रो.प्रदीप कुमार और उनकी पत्नी श्रीमती वन्दना प्रदीप कुमार ने क्लास रूम में प्रवेश किया. हम सब चुपचाप अपने अपने स्थान पर बैठ गए. मुझे अपना विद्यार्थी जीवन याद आ गया. उस वक्त भी कुछ ऐसा ही हँसी मजाक किया करते थे.
प्रदीप कुमार जी कल की भाँति आज भी अपने साथ कुछ उपकरण ले आए थे. कल तो वे सिर्फ़ कुछ सीडीज़ लाए थे – उनके द्वारा निर्देशत और अभिनीत पारसी नाटकों की. आज उन्होंने अपने बैग से एक टेपरिकार्डर, स्पीकर, सीडीज़ तथा कैसेट्स निकालकर सामने की मेज पर सजा दिए. विषय ही कुछ ऐसा था कि इन उपकरणों के अभाव में शायद ही मुझ जैसी अल्पज्ञ का ज्ञान बढ़ता. अरे मैंने अभी तक विषय ही नहीं बताया. विषय है – ‘भारतीय चलचित्र और साहित्य.’
श्रीमती वन्दना प्रदीप कुमार बहुत चाव से एक एक ऑडियो कैसेट निकालकर दे रही थीं और प्रदीप जी टेपरिकार्डर की सहायता से कैसेट्स को बजा रहे थे - बीच बीच में हमें यह बताते हुए कि संगीत में/ मेलोडी में समय के साथ साथ कैसे परिवर्तन लक्षित हुआ. ‘शोले’ के ऑडियो प्ले करते ही हम सब यह भूल गए कि हम क्लास में बैठे थे. गब्बरसिंह के साथ साथ डायलाग बोलने लगे, गाना गुनगुनाने लगे. क्लास एकदम जीवंत थी. किसी के चहरे पर नींद की देवी नहीं थी. सब के सब प्रसन्न मुद्रा में थे.
ऑडियो के बाद उन्होंने वीडियो भी दिखाए – अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में, नमकहलाल, ताजमहल. उमरावजान, मीरा बाई, मुग़ल-ए-आज़म, मेरा नाम जोकर आदि फिल्मों के.
ऑडियो और वीडियो दिखाने से पहले उन्होंने भारतीय चलचित्र के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि “7 जुलाई 1896 को भारत (मुम्बई) में भारतीय चलचित्र का जन्म हुआ. आज भी 7 जुलाई ही है. 1896 से लेकर 1899 तक का समय हिंदी चलचित्र का प्रथम चरण माना जा सकता है. उस जमाने में सिनेमैटोग्राफ के आने की घोषणा मनोरंजन कार्यक्रम के स्तंभ में की गई थी जहां नाटकों के साथ साथ ब्रांडी और व्हिस्की और विविध मनोरंजन कार्यक्रम के विज्ञापन रहते हैं. विज्ञापनों की दुनिया ने तो उसे ‘इस सदी का चमत्कार’, ‘विश्व का एक विस्मय’ आदि की संज्ञाओं से अभिहित किया था. फ्रांस के ल्युमीयेर के एजेंट उसे मुम्बई लाए थे. इससे पहले अमरीका में थोमस एडीसन अपना झरोखा शो अर्थात ‘कैनेटोस्कोप’ तैयार कर चुके थे. अमरीकी जनता को प्रोजेक्टर से जुड़ी कैनेटोस्कोप रीलों का पहला शो 23 अप्रैल 1896 को ही देखने को मिला. लगभग उसी बीच अर्थात 1895 से लेकर 1896 तक एडीसन के सिद्धांतों के आधार पर अर्थात कैनेटोस्कोप (बायोस्कोप) के आधार पर चित्रों का निर्माण होता रहा. उसके पश्चात 1896 से लेकर 1909 तक मुम्बई में मूक चित्रों का निर्माण किया गया.
1900 से लेकर 1909 तक लघु फिल्मों का दशक था. ट्रीवोली में एडीसन की प्रोजेक्टिंग मशीन कैनेटोस्कोप पर 25 लघु चित्रों की घोषणा के बाद विदेश में ‘फातिमा – एक भारतीय नृत्य’ के नाम से फिल्म बनी.
1910 से 1919 के बीच रूपक फिल्मों का निर्माण हुआ. ये फिल्म 30 से 40 मिनट तक की होती थीं. प्रारंभिक वर्षों में सिनेमा उत्पादन के क्षेत्र में लघु चित्रों का बोलबाला रहा. 1910 में मुम्बई के एक्सेलसियर सिनेमेटोग्राफ के लिए तैयार की गई फिल्में ‘दिल्ली में मुहर्रम’, ‘दलाईलामा का पलायन’ ध्यान खींचती हैं.
एक्सेलसियर सिनेमेटोग्राफ के अनुसार ‘दलाईलामा का पलायन’ नामक चित्र में तिब्बत के प्रमुख का चीनियों से बचकर भागना और तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र दार्जिलिंग में शरण लेना और उनके जबरदस्त स्वागत को दिखाया गया था. इस फिल्म में लामाओं के धार्मिक और दार्शनिक परिवेश को चित्रित किया गया था.
1920 – 1929 मूक युग था. 1920 में प्रवेश करते करते भारतीय सिनेमा ने धीरे धीरे एक उद्योग का रूप धारण कर लिया था. 1920 में जहाँ 18 फिल्म बनी थीं, वहीं 1921 में 40 और 1925 में 80. अब तो इससे बहुत ज्यादा संख्या में फ़िल्में बनती हैं. इससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि फिल्म ने उद्योग का रूप ग्रहण का लिया है.
1918 में भारतीय सिनेमेटोग्राफ क़ानून पास किया जा चुका था जिसमें सिनेमाघरों के लाइसेंस और भारतीय और विदेशी फिल्मों के सेंसर की व्यवस्था थी लेकिन उन्होंने 1920 में ही काम करना शुरू किया. इस दशाब्दी में कई कंपनियों और फिल्मकारों का उदय हुआ. उन्होंने भारतीय मूक फिल्मों को अपने पूरे यौवन पर पहुंचा दिया. इनमें बाबूराव पेंटर प्रमुख हैं. उन्होंने कोल्हापुर में महाराष्ट्र फिल्म कंपनी की स्थापना की थी. वे खानदानी चित्रकार थे अतः उन्होंने भारतीय सिनेमा को कलात्मक और दृश्यात्मक आकर्षण किया.
1930 से लेकर 1939 के बीच का समय टाकी फिल्म के उदय और विकास का काल है. इसी समय में ज़ुबैदा ने ‘देवदासी’ फिल्म का निर्माण किया था जिसने जनता को सोचने पर बाध्य कर दिया था. ग्रामीण क्षेत्र में गरीब और लाचार, खूबसूरत लड़कियों को पाखंडी पुजारियों और महंतों की वासना का शिकार होना पड़ता था. इस चित्र में इस कुप्रथा का पर्दाफ़ाश किया गया था. दूसरी फिल्म थी शूद्रक के ‘मृच्छकटिक’ के आधार पर हिंदी और मराठी में बनी फिल्म ‘वसंतसेना’. इसका निर्देशन एम.भवनानी ने किया था. दोनों ही फ़िल्में विदेशी दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गईं थीं. यहाँ तक कि इन्हें बनानेवाली कंपनियों के नाम भी इंटरनेशनल पिक्चर कार्पोरेशन और इंडियन आर्ट प्रोडेक्शन जैसे रखे गए थे.
1940 से 1949 तक युद्ध, स्वाधीनता और उसके बाद का समय था. 1940 की फिल्मों में से रंजीत की हिंदी और गुजराती ‘अछूत’ तत्कालीन समाज में व्याप्त छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने वाली एक प्रभावशाली फिल्म साबित हुई. इसमें बड़ी निडरता के साथ यह कहा गया कि आठ करोड हरिजनों की समस्या का हल ईसाई धर्म परिवर्तन नहीं है बल्कि उनके अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष करना है. बंबई टाकीज़ द्वारा निर्मित ‘कंगन’, ‘बंधन’ आदि फिल्म देहाती फिल्म कथा को लेकर चलती हैं.
1950 से 1959 वह दशक है जब दर्शकों की रुचि बदली. उनका झुकाव पलायनवाद और नाच-गानों की ओर अधिक था. 1950 में वी.शांताराम के निर्देशन में ‘दहेज’ नाम से विचारोत्तेजक फिल्म बनी. ‘जोगन’, ‘मीराबाई’ आदि फिल्म भी इसी समय में आईं थीं.
1960 से 1972 भारतीय फिल्म दर्शक वापस अपने लड़कपन में पहुँच गए. 1960 में ‘मुगले आज़म’ रिलीज़ हुआ, जिसे बनाने में 15 वर्ष से ज्यादा समय लगा और कहा जाता है कि उस समय में हुई तब्दीलियों के कारण इस फिल्म में एक करोड़ से ज़्यादा लागत आई.
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