मंगलवार, 10 जुलाई 2012

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौथा दिन. भाग - 1


 
09
/07/2012 की सुर्खियाँ


·        जयशंकर प्रासाद के नाटक और रंगमंचीयता पर उसमानिया विश्वविद्यालय, आर्ट्स कॉलेज की प्रोफ़ेसर प्रो.शुभदा वांजपे का व्याख्यान
·      साहित्य, मीडिया और संस्कृति पर बाबू जगजीवनराम डिग्री कॉलेज के लेक्चरर डॉ.घनश्याम का व्याख्यान   
  

पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का चौथा दिन.

आज ट्राफिक के कारण मैं पांच मिनट देर से पहुँची यानी कि 10.35 को. मैं तो यह सोच रही थी कि क्लास शुरू हो चुका होगा. पर प्रतिभागी इक्के दुक्के थे. इसलिए पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के कोऑर्डीनेटर डॉ.करन सिंह ऊटवाल ने क्लास देर से शुरू किया. 10.45 को आज का सत्र शुरू हुआ. 

प्रो.शुभदा वांजपे के व्याख्यान का सार संक्षेप 



‘छायावाद के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद के नाटक और रंगमंचीयता’ पर अपना व्याख्यान शुरू करते हुए प्रो.शुभदा वांजपे ने यह कहा कि जयशंकर प्रसाद मूलतः कवि हैं. अतः उनके नाटकों में, कथासाहित्य में भी बार बार उनका यह कवि रूप झलकता है. भावना प्रधान कहानियाँ लिखने वाले लेखकों में जयशंकर प्रसाद का विशेष स्थान है. उनके नाटकों पर ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि उनके नाटकों में कथानक, चरित्र, कथोपकथन, संकलन त्रय, भाषा शैली, प्रतिपाद्य आदि विशिष्ट हैं. उनके नाटकों में बड़े बड़े संवाद होते हैं. भाषा भी परिमार्जित और संस्कृत निष्ठ होती है. जब आलोचकों ने उनके नाटकों की अभिनेयता पर प्रश्न चिह्न लगाया तो उन्होंने यह कहा कि ‘रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल.’

प्रसाद जी ने तो एक नवीन जीवन दर्शन को स्थापित किया है. ‘चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु, राजश्री, करुणालय (गीतिनाट्य) आदि उनके प्रसिद्ध और कालजयी नाटक हैं. जयशंकर प्रसाद ऐसे नाटकारों में एक हैं जिन्होंने गागर में सागर भरने का काम किया है. उन्होंने अपने नाटकों में वर्तमान स्थिति को बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया है. उन्होंने अपने ऐतिहासिक नाटकों में आदर्श चरित्रों का निर्माण किया है. उनके नाटकों में जो प्रेम परिलक्षित होता है वह सिर्फ व्यक्ति तक सीमित नहीं है बल्कि वह देश प्रेम तथा राष्ट्र प्रेम में मुखरित होता है. उनके नाटकों में प्रकृति सौंदर्य, रहस्यानुभूति, दर्शन, धर्म, सौंदर्य तथा सामाजिक समस्याओं का अंकन भी है. उनके नाटकों में अनके प्रकार के शैली रूप दिखाई पड़ते हैं. जैसे वर्णनात्मक शैली, भावात्मक शैली, आलंकारिक शैली, सूक्तिपरक शैली, प्रतीकात्मक शैली, बिंबात्मक शैली आदि.

वस्तुतः प्रसाद जी का मूल उद्धेश्य है सांस्कृतिक चेतना तथा मूल्यों की स्थापना. पाठकों को उपदेश देना या फिर उनका मनोरंजन करना उनका आशय नहीं है. उनके नाटकों में उनकी प्रयोगात्मक दृष्टि दिखाई पड़ती है. उन्होंने संस्कृत नाट्य शैली के साथ साथ पाश्चात्य नाट्य शैली को भी ग्रहण करकेर उनका समायोजन अपने नाटकों में किया है.

‘ध्रुवस्वामिनी’ तीन अंकों का नाटक है. रंगमंच की दृष्टि से सर्वोत्तम नाटक है. 1933 में प्रकाशित यह नाटक स्त्री विमर्श की दृष्टि से सशक्त नाटक है. उस ज़माने में ही प्रसाद जी ने स्त्री अस्मिता, अस्तित्व और अधिकारों की बात कही हैं. उन्होंने तत्कालीन समाज में स्त्री का स्थान, स्त्री का पुनर्विवाह जैसे प्रश्न उठाया. इस नाटक की प्रधान पात्र ध्रुवस्वामिनी जिससे प्रेम करती है (चंद्रगुप्त से) वह उससे विवाह नहीं कर सकती और जिससे उसका विवाह संपन्न होता है (रामगुप्त) वह उससे प्रेम नहीं कर सकती. इस नाटक में पुरुषसत्तात्मक समाज पर प्रश्न चिह्न लगाया गया है. जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से ऐसे परुषों पर प्रहार किया है जो स्त्री को पशु संपत्ति समझता हो, उस पर अत्याचार करता हो – ‘पुरुषों ने स्त्रियों को पशु संपत्ति बनाकर उस पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है. यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा तथा नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो.’ 

चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह जयशंकर प्रसाद की प्रगतिशील दृष्टि ही है. ध्रुवस्वामिनी के विवाह को उचित माना जाता है. धर्मशास्त्रों में भी खा गया है कि स्त्री-पुरुषों का विश्वासपूर्वक अधिकार, रक्षा और सहयोग जब होता है तभी वह विवाह होता है, अन्यथा धर्म और विवाह खेल हैं.

प्रो.शुभदा वांजपे ने स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, अजातशत्रु, राजश्री आदि नाटकों की कथावस्तु को स्पष्ट करते हुए यह बताया कि जयशंकर प्रसाद के नाटक रंगमंचीयता की दृष्टि से भी उत्कृष्ट हैं.   


इस  पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के संबंध में गत दिनों की जानकारी के लिए देखें-

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